Saturday, July 25, 2009

मुझे पंख फैलाने दो


उत्कंठा ये है मेरे मन की
या पराकाष्ठा पागलपन की
इक बुझती नही पिपासा है
क्यो लगता जीवन प्यासा है
छू लू तारो को उड़ कर
या ले आऊं उन को धरती पर
क्या-क्या करने को है करता मन
चूमू नभ को या कर लूँ आलिंगन
बरबस ही ठग जाता हूँ
सोते से मै जग जाता हूँ
वीणा की मीठी तान सुना
कोई बरबस मुझे बुलाता है
कोमल कोमल मेरे मन को
धीरे धीरे सहलाता है
यह कोई और नही, बस मन है मेरा
जो हरपल व्याकुल रहता है
खोलो पखने , चल उड़ ले
कानो में धीरे से कहता है,
मै पड़ा-पड़ा कब तक देखूं
चलो निकल पडूं कुछ तो सीखूं
अब मेरा मन भी करता है
जय करूँ अपने मन की
जो आई आज सरलता है


उठ खड़ा हुआ इस लिए आज मै
जीने को हर पल हर शय

क्यो जंजीरे है मेरे पखनो पर
मुझे पंख फैलाने दो
नही चाहिये पहरे सपनो पर
अब मानव धर्म निभाने दो

कर्म ही है अब धर्म मेरा
अपने कर्मो से जतलाने दो

मुझे पंख फैलाने दो
अब बस ,मुझे पंख फैलाने दो

आपका अपना
अनिल कुमार बाजपेयी

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